एक अंधा बोलता है हिंदी निबंध Autobiography of Blind Person Essay in Hindi

Autobiography of Blind Person Essay in Hindi: कौन कहता है कि पंगुता केवल एक दयनीय विवशता है ? आइए, मुझसे मिलिए। मैं आपको बताऊँगा कि अंधत्व देकर भी प्रकृति किसी की प्रतिभा नहीं छीन लेती। यदि कुछ बनने की लगन है तो व्यक्ति अंधा होने पर भी अपनी मंजिल पर पहुँच सकता है। जहाँ चाह, वहाँ राह ‘ इस कहावत को मैंने पूरी तरह चरितार्थ किया है।

एक अंधा बोलता है हिंदी निबंध - Autobiography of Blind Person Essay in Hindi

एक अंधा बोलता है हिंदी निबंध – Autobiography of Blind Person Essay in Hindi

अंधत्व के अँधेरे में आशा का उजाला

अंधत्व मुझे जन्म से नहीं मिला था। बचपन के सात वर्ष तक मैने दृष्टि-मुख पाया था। पाँच वर्ष की अवस्था में पिताजी ने पाठशाला में भर्ती कर दिया था। पढ़ाई-लिखाई से लेकर खेल-कूद तक मेरी प्रतिभा सबको विस्मित कर देती थीं। पर तभी मेरे कोमल जीवन पर काल ने कठोर वज्रपात किया। चेचक के भयंकर प्रकोप ने मेरे नेत्रों की ज्योति छीन ली। इकलौते बेटे की यह दशा देखकर माता-पिता का हृदय हाहाकार कर उठा। क्या नहीं किया उन्होंने मेरी आँखों के इलाज के लिए ! उन्होंने डॉक्टरी उपचार से लेकर झाड़-फूंक तक सारे उपाय किए, पर दृष्टि जो एक बार गई, फिर दुबारा नहीं लौटी। मेरे जीवन में अँधेरा छा गया। निराशा के उन भयानक क्षणों में मैंने जिद की कि मुझे किसी अंध विद्यालय में दाखिल कर दिया जाए। माँ की इच्छा के विरुद्ध भी पिताजी ने मेरी जिद पूरी कर दी|

संगीत- शिक्षण

अंध विद्यालय का वातावरण बड़ा प्रेरक था। वहाँ अंध छात्रों के लिए शिक्षा के विविध साधन थे। हमारी पुस्तके ब्रेल लिपि में थी। थोड़े से अभ्यास से मैं इस लिपि को जानने-समझने लगा। शालांत परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर मैंने कई पुरस्कार प्राप्त किए। पर मेरी रुचि सितार वादन और गायन में विशेष थी। कई वर्षों की साधना के बाद मेरी अँगुलियों का स्पर्श होते ही सितार के तारों से स्वर्गीय संगीत फूट निकलता था । मेरी आवाज भी मीठी और लोचदार थी। जब मैं सितार पर गाता तो लोगों को बैजू बावरा की याद आ जाती थी । संगीत-स्पर्धाओं में भी मैंने कई तानसेनों को मुँह को खिलाई। मेरी कला पर मुग्ध होकर एक ग्रामीण युवती ने मुझसे विवाह कर लिया।

प्रसिद्धि

वर्षों तक गीत और संगीत की दुनिया में मेरा नाम सूरज की तरह चमकता रहा। मेरे चर्मचक्षु नहीं थे, पर अपने ज्ञानचक्षुओं से मुझे कला की सारी बारीकियाँ दिखाई देती थीं। संगीत-समारोहों में मेरी उपस्थिति रौनक ला देती थी। नाम और दाम मेरे पीछे पीछे भागते थे। कितने ही आँखोंवाले मेरी प्रसिद्धि से ईर्ष्या करते थे !

संदेश

मुझे इस बात का संतोष था कि अंध होकर भी मैं किसी पर आश्रित नहीं रहा। अपने माता-पिता को भी मैंने किसी दृष्टिसंपन्न पुत्र से कम सुख और संतोष नहीं दिया।

जीवन से संतोष

अब तो मुझे मृत्यु के कदमो की आहट सुनाई दे रही है । मैं चाहता हूँ कि अपंग जन मेरे जीवन से प्रेरणा ले। वे पंगुता के अभिशाप को वरदान में बदलकर दूसरों के भी हौंसले बुलंद करें।

Leave a Comment