एक विधवा की आत्मकथा हिंदी निबंध Autobiography of Widow Essay in Hindi

Autobiography of Widow Essay in Hindi: जी हाँ, मैं बेबस और वेसहारा विधवा हूँ । मेरे जीवन की फुलवारी पूरी खिलने से पहले ही मुरझा गई है। मेरी माँग का सिंदूर ही आज अंगार बन गया है । लेकिन पहले ऐसा न था सिर्फ एक साल पहले का मेरा जीवन ! आज उन सुखभरे दिनों की याद आँखों में आँसू भर लाती है और मेरे ‘उन की तस्वीर तो निगाहों से पलभर के लिए दूर नहीं होती।

एक विधवा की आत्मकथा हिंदी निबंध - Autobiography of Widow Essay in Hindi

एक विधवा की आत्मकथा हिंदी निबंध – Autobiography of Widow Essay in Hindi

दांपत्य-जीवन

मेरा जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ था। मेरा बचपन बड़ी हँसी-खुशी में बीता। सातवीं कक्षा तक पढ़कर मैंने पढ़ाई छोड़ दी, माता-पिता की लाड़ली जो ठहरी । मैं पहले से ही सुंदर थी। सोलह की उम्र पार करते ही मुझमें और भी निखार आ गया ! शीघ्र ही मेरा विवाह एक पढ़े-लिखे और सुंदर युवक के साथ हो गया। हमारा दांपत्य जीवन बड़े सुख से बीतने लगा। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ मेरे सुंदर और कीमती गहने-कपड़े देखते ही स्तब्ध रह जाती थी। हररोज हमारे यहाँ मीठे पकवान बनाए जाते थे। मैं अपने आपको बड़ी भाग्यवती समझती थी। फिर मुन्ने का जन्म होते ही मेरे सुख में चार चाँद लग गए।

वैधव्य

किंतु मेरा वह सुख एक सपना निकला। मेरे पति एक स्कूटर-दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गए। मैंने तन-मन-धन से उनकी सेवा की। भगवान से कितनी प्रार्थनाएँ की, लेकिन उसे दया न आई । एक दिन वे मुझे और इस भोले शिशु को छोड़कर भगवान के पास चले गए । मैंने रो-रोकर आकाश सिर पर उठा लिया। मेरा प्यारा मुन्ना ‘पप्पा’, ‘पप्पा’ की रट लगा-लगाकर रोता ही रह गया।

जीवन की कटुताएँ, वर्तमान जीवन

विधवा होते ही घरवालों का स्नेह उठ गया। सास-ससुर ने मुझे ‘डायन’ कहा । ननद-भौजाई ने मेरी ओर से मुँह फेर लिया। हाँ, छोटे देवर की सहानुभूति मेरे साथ अब भी पहले जैसी ही है, लेकिन वह बेचारा अकेला क्या करता, सबसे छोटा जो ठहरा ! बस ! घर का एक कोना ही मेरा आश्रयस्थान बन गया। हँसना-बोलना अब मेरे लिए अपराध था । आज तो मेरा रोना भी समाज की दृष्टि में अशुभ माना जाता है। लोगों के ताने सुनने और पद-पद पर तिरस्कृत होने के लिए ही आज मैं जीवित हूँ। सचमुच, हिंदु नारी के लिए वैधव्य से बढ़कर और कोई अभिशाप नहीं है।

उपसंहार

आज जमाना काफी बदल चुका है, किंतु विधवा के प्रति समाज का दृष्टिकोण तो पहले जैसा ही संकुचित है। कई बार इच्छा होती है कि सिर पटक-पटककर इस जिंदगी का अंत कर दूं, लेकिन मुन्ने को देखकर जीना पड़ता है। मैं अपने मुन्ने में उनकी ‘ छबि देखती हूँ और इन दुखी दिनों को गुजारने की कोशिश करती हूँ । जिंदगी से अब मुझे कोई उम्मीद नहीं है । हाँ, इतना जरूर चाहती हूँ कि मेरा बेटा एक बड़ा आदमी बने और अपने पिता का नाम रोशन करे। यदि उसका जीवन सफल होगा तो विधवा-जीवन की मेरी तपस्या भी सफल होगी।

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